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विकास तो बच्चा है जी

sach mano to
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सुरेश समाज का एक ऐसा पात्र है जिसने कभी स्कूल का रुख नहीं किया। उम्र के नौवें पड़ाव पर भी वह खुले बदन सड़कों पर गिल्ली-डंडा खेल रहा है। बस सर जी, यही शब्द है उसके कोष में। आते-जाते हर वक्त पूछता है- सर जी कहां जा रहे हैं बाजार। क्या खाये सर जी। आफिस जा रहे हैं। उसकी पांच वर्षीय बहन है मुन्नी। और उससे छोटी है एक नन्की। उम्र करीब दो साल। हर समय अपने भाई या बहन के गोद में लिपटी रहती है। तीनों कालनी के मुंहाने पर एक झोपड़ी में रहते हैं। कालनी के आलीशान मकानों में जब शाम को रोशनी जलती है उसका झोपड़ अंधेरे में नहा उठता है। देर शाम बापू आते हैं काम से लौटकर, दारू पीकर। रेडियो जरूर उसकी झोपड़ी में है जो कभी-कभी रात को बजती है जब बापू मूड में होते हैं। मां दिनभर काम-काज कर बच्चों को पालती है। सुरेश उसी झोपड़ी के आगे चापाकल के सामने बैठा मिलता है। अक्सर नहाते या खेलते। प्रदेश में विकास दिख रहा लोगों को। बड़े-बड़े निवेशकों को यहां इस प्रदेश में वो सबकुछ दिखाई पड़ रहा है जो आज तक किसी प्रदेश में दिखा ही नहीं। सो, चारों तरफ सुशासन, विकास की ही बात हो रही है। पर विकास यहां उस नामचीन कलाकार एके हंगल की तरह है जो लाचार, बिस्तर पर रेंगता दिखता है। विकास कहां है। उस
झोपड़ी में सो रहे सुरेश तक कौन पहुंचायेगा विकास की किताब। कौन उसे स्कूल का रास्ता दिखायेगा। शायद
कोई नहीं। किसी के पास समय कहां है सुरेश, मुन्नी और नन्की के बारे में सोचने की। और एक सुरेश है। उसकी आत्मसंतुष्टि देखिये। दीपावली के महज दो दिन बचे थे। उसकी मुन्नी भी मुझे देखते ही अब बड़े भाई की नकल करते पूछती है, सर जी कहां जा रहे हैं। कभी-कभी मुस्कुराती है फौजी स्टाइल में सलाम करती है। एक दिन पटाखा खरीदने के लिये पैसे मांगती है-सर जी कुछ पैसे दो ना। अस्पष्ट भाषा होने के कारण मैं पीछे मुड़कर पूछता हूं-क्या कहा। सुरेश तपाक से कहता है नहीं सर जी कुछ नहीं, आप जाइये और अपनी छोटी प्यारी मुन्नी को डांटता है सर जी से पैसा मांगती है। अब जब भी मुन्नी देखती है उसके चेहरे पर सिर्फ दर्द है। सिर्फ सलाम करती है, हंसती है। उस हंसी के पीछे का मर्म वो दर्द, पीड़ा विकास से दूर है। विकास की राह उसकी झोपड़ी तक नहीं पहुंचती। अक्षर की दुनिया से दूर सरकार के पास अखबारों में बयान देने से फुर्सत कहां। हाकिम हैं फाइलों से निकलने, बाहर झांकने की जरूरत कहां। मुन्नी, सुरेश नन्की क्या कभी क,ख,ग, की दुनिया से बाबस्त हो पायेंगे। शायद नहीं। योजनायें कई हैं सरकार के पास। लोगों ने जमकर पिछले चुनाव में नीतीश सरकार को समर्थन दिया। अखबार वालों, चैनलों ने विकास को सरजमीं पर उतरते देखा, सराहा। पर आज सुरेश एक प्रश्न लेकर खड़ा है अपने झोपड़ी के बाहर। लोगों के पास विकल्प क्या था? लालू का आतंक, साधु की दादागिरी देखने की हिम्मत उनमें थी नहीं। पंद्रह वर्षों का विकृत चेहरा सामने था। कांग्रेस का हाथ आम लोगों से काफी दूर। ऐसे में उस जंगलराज से बेहतर यह हवा-हवाई बातें ही सही। विकास होगा। इसी उम्मीद, विश्वास में सुरेश भी हर सुबह झोपड़ी से बाहर निकलता है। सुबह-सवेरे बच्चों को भारी बस्ता लादे, बस की इंतजार में खड़े, स्कूल जाते देख पूछता है- विकास तो अभी बच्चा है ना सर जी। मुन्नी कहती है अभी हम बच्चे हैं विकास होगा तो बापू हमें दारू पीकर पीट-पाट नहीं करेंगे। मइया से झगड़ेंगे नहीं। हाल ही में सुरेश की मां घर छोडऩे की धमकी दे रही थी। वह पति पर दबाव दे रही थी अब तो पन्नी पीना बंद करो। बदले में पति ने पूरे घर को तहस-नहस कर दिया। यह भी नहीं सोचा कि उसकी पत्नी फिर मां बनने वाली है। आखिर यह दोष उस पन्नी की है जिसे सरकार ने हर चौराहे पर बेचने की खुलेआम इजाजत दे रखी है। सुरेश हर रोज खाली पन्नी को बापू के सिरहाने से उठाकर फेंकता है। मुन्नी भी खुले बदन नन्की को गोद में लिये घूमती रहती है। विकास होगा तो उसे भी तन ढकने को कुछ मिल जाये शायद। खुले बदन को छुपाती वह हर रोज बड़ी हो रही है लेकिन अपना विकास तो अभी बच्चा है जी। सुरेश फिर उसी झोपड़ी के बाहर खड़ा है। मुन्नी पूछती है- भइया ये विकास किसका नाम है?

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