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राज किरण का पागल हो जाना

sach mano to
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सिनेमा उद्योग का तिलिस्म भी अजीब, रोमांचक है। इसमें ग्लैमर है। पैसा है, शोहरत है, दीवानगी है तो गुमनामी, एकाकीपन, मुफलिसी, घुटन भरी जिंदगी भी कम नहीं। भले यह उद्योग भारतीय लिहाज से बड़ा हो। इसमें चकाचौंध, जिंदादिली का पुट भी समाहित हो। आधुनिकता की बयार में यहां सब मिठास, चकमक लबरेज लगे कि उसमें खो जाने को दिल बेचैन हो जाये। लेकिन हकीकत उस मेकअप मानिंद है जिसका ऊपरी हिस्सा तो सफेद, सुर्ख दिखता है पर अंदर, भीतरी हिस्सा उसका असली चेहरा काला स्याह से भी भयावह, डरावनी है। इस उद्योग की जमीनी फलसफा, यहां की हावो-हवा, सच्चाई की खुलती परत दर परत, नग्न होते चेहरे, उस फैंटासी, आधुनिक चकाचौंध भरी जिंदगी को किस हद तक डरावनी तरीके से खंगाल, उकेर, परोस रही है यह सच धीरे-धीरे किताब के पन्नों की तरह साफ उजागर, सामने आ रहा है। तमाम सुख-सुविधा, तामझाम के बीच भी एकाकी जिंदगी जीते हमारे नामी-कलाकार, अभिनेता रात भर पार्टियों में गलबाहियां करते ये समाज के हीरो-हीरोइनें सुबह होते ही उसी एकाकी, अकेलापन की घुटन में जीने को अभिशप्त हो उठने की पीड़ा से छटपटा, कराह उठते हैं। पिछले दस वर्षो से सफल अभिनेता राज किरण कहां हैं? किसी को मालूम नहीं। किसी को पता ही नहीं चला, न लगाया गया कि आखिर राज किरण कहां, किस दशा, स्थिति में हैं? कोई खोजने, पता लगाने की स्थिति में नहीं तत्पर दिखा। इतने बड़े उद्योग में अपने एक साथी की तलाश के लिये किसी के पास वक्त नहीं। इस उद्योग की भागम-भाग तेज दौड़ती जिंदगी में दो पल किसी के लिये निकाल लेना मुश्किल। उस शख्स के बारे में जान लेने की फुर्सत किसी के पास नहीं कि कल-तलक जो साथ था। उनके साथ शूटिंग, पार्टियों में व्यस्त उनके साथ कदम ताल मिलाता था अचानक कहां खो, गुम हो गया उसका राज किरण। हकीकत तो इतने शर्मसार करने वाले हैं कि जानकर सांसे भी दो मिनट के लिये थम जाये। राज किरण, पागल हो गया है। पहले पत्नी ने धोखा दिया। फिर बेटे ने नाता तोड़ा। इतना ही नहीं। दोनों ने मिलकर राज किरण के साथ जो छल, प्रपंच का नाटक बुना, तैयार किया परिणति सामने है, राजकिरण पागल हो गये हैं। अपनों की वेवफाई में तिल-तिलकर बिखरते-टूटते राजकिरण तमाम रोशनी के बीच अंधेरे में गुम होते चले गये। जब तलक भरपूर दौलत, शोहरत साथ था अपनों ने साथ दिया। आहिस्ता-आहिस्ता बुना जाने लगा फरेब व स्वार्थ का जाल जिसमें राज किरण फंसते, उलझते चले गये। पत्नी, बेटे ने जो धोखा का खेल खेला उससे राज किरण लगातार डिप्रेशन में आगे बढ़ते चले गये। डिप्रेशन के शिकार राज दस वर्षों से जिंदगी व मौत के बीच झूलते अमेरिका के अटलांटा के एक पागलखाना में पागल की भूमिका निभा रहे हैं। लोग उन्हें पागल कह रहे हैं। घर जहां से शुरू होती है लोगों की बेहतर जिंदगी की शुरूआत। जब अपनों का नहीं मिले साथ, घर के रिश्ते-नाते वेवफा हो जायें। समाज उसकी मोहब्बत को ठुकरा दे तो कामयाब से कामयाब, नामवाला इंसान दौलत की दल-दल, अपनों की दुत्कार में अचानक गुमनामी में ही अपना घर बसा ले तो आश्चर्य कहां? ऊपर से पूरा फिल्म इंड्रस्टी चुप, मौन खड़ा हो। राज किरण का पागल होना हमारे समाज खासकर ऊंची सोसायटी की संकीर्ण मानसिकता का साफ झलकता चेहरा है। चाहे अभिनेता वयोवृद्ध एके हंगल की भुखमरी का सवाल हो या फिर परवीण बाबी की लाश घर के बेडरूम में मिलने का। रेखा के पति की मौत से उपजे सवाल हों या रोज-रोज के इन हीरो-हीरोइनों के इश्क, रोमांस व अफवाह के किस्से। तलाक का खेल। रोमांस की बातें। एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी का जो खेल इस उद्योग में चल रहा है उसका चेहरा समाज के आइनों में कहीं अन्य नहीं दिखाई पड़ता। सिनेमा में काम दिलाने के बहाने युवतियों का शोषण का एक धंधा ही इस उद्योग में फल-फूल रहा है। नये चेहरे आते भी हैं तो जिस्म की नुमाइश की पहली शर्त पर। नग्न होने का जो तरीका इस उद्योग ने अख्तियार किया है वह समाज को कहां, किस हद तक पतन की ओर ले जायेगा यह एक आदमी के पागल हो जाने से भी ज्यादा खतरनाक संकेत, मोड़ पर है।

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