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ये हलकट जवानी

sach mano to
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तस्लीमा भी उभार में है। वह पुरुषों की केंद्र में नाजायज खड़ी है। उसके पास शब्दों की बाजीगरी है। ताकतवर दिमागी सोच, समझ है। मारन, मोहन, स्तभंन, वशीकरण के मंत्र, सूत्र उसे बखूबी मालूम हैं। पता है, उसके पास शरम-व-हया का लज्जा नहीं है। वह उसी खुली किताब के पन्ने के मानिंद सामने है जिसे लोग चाव से पढऩे, सुनने, रसास्वादित करने की फिराक, ताक में रहते हैं। साहित्यक वर्ण, स्वर, व्यजंन, स्पर्श, उष्म की परिभाषा वह जिस तरीके परोसती है उससे ह्रस्व व दीर्घ उसके दैहिक अन्तस्थ से रिस कर पुरुषवर्गीय सोच के सामने निर्वस्त्र हलकट जवानी की तरह आज खड़ी है। मादकता, मारकता का जो अहसास तस्लीमा नसरीन को है उसे दूर-तलक निहारने को लोग स्वयं खड़े, मिल रहे हैं। सबसे अहम उसकी देह जो विमर्श को स्वयं, खुद आमंत्रित, विमोचित
करती हैं। ऐसे में यौन उत्पीडऩ की बात पहले ही स्वीकारोक्ति, सामने आ जानी चाहिए थी। उसके साथ छेड़छाड़ हुई। इस्मत पर किसी ने हाथ डाला, छूआ, एक क्षण स्पर्श को कोई मचल उठा। यह पुरुषत्व के स्वभाव में भी है और नारियों के फलसफा में भी। अब भला बांग्लादेशी लेखिका जैसी सेलेब्रिटी के साथ शर्मनाक हिमाकत, उत्पीडऩ सरीखे अमर्यादित व्यवहार कोई करीबी रिश्ते को बुनने वाला, साक्षात दैहिक रुप का विमर्श नियमित निहारने, महसूसने वाला ही तो कर सकता है। बात पुरानी है। घटना आज की नहीं बल्कि 1999 की है। यानी तेरह साल पूर्व उस उम्र की जुबानी जहां बांग्ला साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय व तस्लीमा नाजुक संबंध की डोर, उस मुहाने पर खड़े थे जब जवानी में हलकट हो जाना स्वभाविक, शौक में भी शुमार है। सुनील ने नसरीन पर तिरछी नजर डाली, वह भी आइपीएस अधिकारी नजरुल इसलाम की मुसलमानों पर केंद्रित पुस्तक पर पश्चिम बंगाल की पुलिस के हस्तक्षेप, कार्रवाई के बाद। आखिर उस नजरुल से तस्लीमा के क्या संबंध थे कि तस्लीमा को यह कार्रवाई इतनी साल गई। उसे यह बात इतनी खली, व्यथित, नागबार भला क्यों गुजरी कि तमाम लोगों से विरोध के स्वर अलापने, मुहिम चलाने की अपील पर वह आमादा हो गई। इसके बाद भी तस्लीमा जब कुछ बचा, शेष नहीं रख सकीं तो वही हथकंडा, जिसे महिलाएं हमेशा नस्तर, औजार के रुप में बेजा इस्तेमाल करना नहीं चूकती को पान कर लिया। वह ट्विट कर गई, सुनील किताबों पर प्रतिबंध व औरतों की गोश्त के आदी हैं।
दरअसल, महिलाएं फेसबुक की लत में हैं। इसके लिए उनका जीन जिम्मेदार है और इस जीन की पैमाइश तस्लीमा शुरू से ही कर, जान रही हैं। सो, तेरह साल बाद उसने इश्किया ट्विट कर नारीत्व को फिर से उसी रुप में परोस दिया जहां से वह निकलने की जिद में हैं। वैसे, विवाद में रहना, उसे समझना तस्लीमा को शुरू से भाता है, रहा है। निर्वासित जिंदगी उसने खूब, भरपूर जिए, जी भी रही हैं। वह उस हिंदुस्तानी मूल की
पाकिस्तानी नागरिक शर्ले यानी शबनम खातून से कम नहीं जो कराची में गुजरे तेरह बरसों से एक घर के महज एक छोटे से कमरे में बंदी पड़ी है। हां, यह इतर कि उस बंद अंधेरे कमरे में उसके साथ बेटियां भी घुट-घुट कर जी रही। तस्लीमा को तो खुली हवा मंजूर थी। ऐसे में कट्टरपंथों के विरोध के बीच उसने शरीर की भाषा, उसकी जरूरियात, उसे तोड़-मरोड़ कर कम्यूनिकेशन स्किल के तौर पर परोसने की हुनर वह सीखती चली गई। वह उस एकाकी पुरुषत्व की गंध को अपने जेहन का लिहाफ बना डाला जिसकी गरमाहट आज सबसे बाबस्त है। वह बिपाशा की तरह उस खुली जीप पर सवार है जिसमें बेवजह नायिका अपने संपूर्ण नंगे पैर को उठाकर बैठी है और जॉन उसकी मखमली श्वेत पैरों पर उंगलियों का जादू चलाता गाड़ी ड्राइव कर रहा है। जोश, उफान में बिपाशा अपने खुले शरीर का समर्पण कर नायक को अपने जिस्मानी तारत्मय से बांध, पाश लेती है…और वह जीप सरपट दौड़, निकल पड़ती है दर्शकों की सनसनी को रिसने। अब देखिए ना, वीना मल्लिक के बाद एक और पाकिस्तानी बाला, पाक की खूबसूरत हसीन मॉडल मेहरीन सैयद भी जल्द ही हिंदी फिल्मों में एंट्री लेने वाली है। संभलिए, आज स्त्रीतत्व अफसोसनाक हालात में है। स्त्रीत्ववादी द्विखंडिता से बाहर निकलने की छटपटाहट में चाहे विधा कोई भी हो औरत तेरी कहानी वही है, यही है।

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