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लो… यही लोकतंत्र है

sach mano to
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दो संपादकों की गिरफ्तारी ने तमाम सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या कलम चलाने वाले अब जेल भी जाएंगे। यह आधुनिक पत्रकारिता की साफगोई पर धब्बा है। अभिव्यक्ति के सामने एक मौन दंडवत। वर्तमान मीडिया उसके ट्रेंड, स्वरूप, सोच का फलसफा उस निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है जहां से एक समग्र व ठोस बहस की जरूरत महसूस हो रही है। आखिर पत्रकारिता का भावी चेहरा कैसा होगा? क्या पत्रकारिता धंसान, अवसान की ओर है। कोई मापदंड कहीं निर्धारित नहीं। पाठकों को जितना चाहो चबा लो। शर्त यही कि चैनल या अखबार बस दौड़ता रहे। ऐसे में इसके चरित्र का बेपर्द होना स्वभाविक। तमाम मान्यताएं, धारणाएं चिंतन सब गायब, धाराशायी हैं। नतीजतन, स्वस्थ व मिशन पत्रकारिता की बात बेमानी हो चली है। सत्ता-विपक्ष, राजनेता, अभिनेता, उद्यमी गठजोड़ संपादकों पर हावी हैं। संपादक की भूमिका यह तय करने के लिए ही शेष है कि कारपोरेट घरानों, नेताओं खासकर सत्ता पक्ष से संबंध कैसे मधुर हों और उससे इन हाउस व खुद का फायदा कितना दिलाया, लिया जा सके। लिहाजा, पत्रकारिता चाहे उसका प्रारुप कोई भी हो वह उस चाटुकारिता, कमीशनखोरी व दलाली करने वालों के कतार, पंगत में ही दिनानुदिन असुरक्षित है। इसका चरित्र इसी के ईद-गिर्द है जो संपादकों की भूमिका खंगालने उसे टटोलने को आज विवश है। जो संपादक हालिया दिनों तक मर्यादा का प्रवाह लिए स्वच्छता का पर्याय था वह आज अचानक किस आवरण में गायब, ओझल हो रहा है। तमाम सवाल जो पूछे जाएंगे, पूछे जा रहे हैं। संपादकों की भूमिका ने आज पत्रकारिता जगत को कटघरे में ला खड़ा कर दिया है। खासकर, अखबारों के क्षेत्रीय संस्करणों की जब से बुआई शुरू हुई है फसल काटने वाले संपादकों की नजरें कुछ खास चीजें तलाशनी लगी हैं। ऐसे में,अपने बंद आलीशान, सुसज्जित कमरे की बेशकीमती आराम कुर्सी पर लुढ़के संपादक मौलिक कम व्यवसायिक ज्यादा होते जा रहे हैं। वहीं से शुरू होती है ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता, समर्पण की कोई कीमत नहीं लगाने,चुकाने की बारी। पत्रकारिता को आज भी मिशन समझने की गलती करने वाले यहीं से हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। चम्मचागिरी को यही पर सबके सामने जन्मा, पैदा कर खुला छोड़ देने की वकालत शुरु हो जाती है। सच लिखने से पहले संपादक की रजामंदी चाहिए। खासकर, वैसे कर्मी जो समझदार व ईमानदार पत्रकारिता के शौकीन हैं। जिनकी खून में अब भी मिशन रूपी, स्वस्थ पत्रकारिता कहीं न कहीं जिंदा है। ऐसे लोगों पर संपादक अपने कैबिन का पर्दा हल्का कर नजरें गड़ाए आराम से मिल जाते हैं। चाहे वो प्रधान कार्यालय हो या कोई मॉडम सेंटर। कम ही संपादक हैं जो आज भी लिखने-पढऩे का बेजा हरकत करते हैं। समय, फुर्सत कहां है उनके पास। जो जितना बड़ा नामवाला तिकड़मी वो उतना बड़ा संपादक। एक संपादक के कमरे में क्या होता है? कोने में टीवी। श्रव्य बंद, दृश्य चालू। सामने कुर्सी पर चार-पांच लोग। सभी चाटुकारिता की पत्रकारिता कर अभी-अभी लौटे हैं। उसमें से कुछ लोग एनजीओ या किसी पार्टी या स्थानीय शीर्ष जनप्रतिनिधि। सामने जायकेदार चाय की खूबसूरत प्याली। एक प्लेट में कुछ नमकीन। हंसी-ठहाके , गप्पेबाजी। एक अहम बात, वहां जो कामुक बातें हो रही हैं उसे सुनना मना है। आखिर वो संपादक हैं। किसी भी अश्लील, कुसंस्कृति पर बतिया सकते हैं इसमें हर्ज क्या। लेकिन आपको शर्म आएगी वहां की बातों को सुनकर। बात शुरु होती है थ्री इडियट की। फिल्म का अंतिम दृश्य। हिरोइन करीना की बड़ी बहन प्रसव पीड़ा से छटपटा रही है। नायक आमिर उसे बचाने व बच्चे को सही सलामत बचाने में अपना प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन यहां से बात निकली और पहुंच, शुरु हो जाती है उस रस उस स्त्री मोचन की जिसके शब्द सभ्य समाज के लोगों के मुंह में नहीं है। कोई भी महिला इस शब्द के मायने नहीं जानना चाहती। क्या एक संपादक अपनी भूमिका का सही से निर्वहन कर रहे, शायद इसमें संदेह। मंच पर सभा पर यहां तक कि कई साइटों पर महिला विरोध की बात नहीं सहन करने वाले संपादक बंद कमरे में क्या करते हैं ये जानना आज आम लोगों के लिए भी बेहद जरूरी है। जातिवाद, क्षेत्रवाद से लेकर जितने भी वाद हैं सबका झंडा पत्रकारिता में बुलंद करने वाला एकलौता वह कौन है-एक संपादक। वह सभी वादों की जद में है। सबसे अहम उस कुर्सी की पैदाइश ही एक वाद के तहत है जहां चाटुकारिता, अंग पोछन संस्कृति हावी होकर पत्रकारिता की पवित्रता को कलंकित करने पर आमादा है। जाहिर है, बहुत ही कम संपादक की बात आज किसी मोडम प्रभारी से खबरों के लिए होती है। अधिकांश को विज्ञापन चाहिए… आवाज में कड़ापन। सामने लाचार, बेबस एक पत्रकार जिसके पास बात-बात पर शब्द हैं तो सिर्फ…जी…जी। यहीं से पत्रकारिता की दुर्गति शुरु होती है। साख पर एक प्रश्नचिह्न। पत्रकार होना, कहलाना आज शर्म की श्रेणी में है खासकर, छोटे शहरों में। भ्रष्टाचार, शोषण की बात लिखने वाले आज खुद जिस दलदल में हैं कभी किसी ने जानने, समझने की कोशिश की। दिमाग की बत्ती गुम, गुल हो जाए जैसे आज दो चैनल के संपादकों की गिरफ्तारी के बाद की स्थिति का है। श्री काटजू ने बिहार की पत्रकारिता पर सवाल उठाये तो एक वाद, एक पार्टी का तुरंत तमगा चस्पा हो गया। सही.. बिल्कुल जायज कहने वाले चाहे वो कोई भी हों हाशिए पर बलि बेदी पर जरूर चढ़ा दिए जाएंगे। सवाल करने वाले सवाल दागेंगे ही कि 384 व 511 में गिरफ्तारी क्यों हुई। ये सत्ता पक्ष उस मंत्री के दबाव के कारण यानी सत्ता का पूरा दुरुपयोग। लेकिन अफसोस तमाम अखबारों में यह खबर ही गायब दिखीं कि लोकतंत्र पर हमला हो रहा है। चैनलों में यह सिर्फ ब्रेकिंग न्यूज का हिस्सा ही बन सका। यह पूरी पत्रकारिता जगत का नुकसान है। शायद, मौन रहना ज्यादा मुनासिब… संबंध बिगडऩे का जो खतरा है। आखिर, गांधीजी के तीनों बंदर भी तो इसी देश को सीख देकर चले गए। शायद यही लोकतंत्र है।

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