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मरी नहीं…मार दी गई वो

sach mano to
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बात यही हो रही है। अच्छा हुआ, वो लड़की मर गई। कम से कम जंतर-मंतर, इंडिया गेट उस मुनिरका बस स्टैंड पर प्रदर्शन कर रही भीड़ को तो अब नहीं पहचान पाएगी। उसमें शामिल कई पार्टी के घुसपैठियों को तो नहीं देख सकेगी वो। जिससे, जिस पार्टी के लोगों से इस सड़ी-गली व्यवस्था से उसे घृण आती थी। अब वह नहीं देख सकेगी कैसे उसके नाम पर एक और दिवस मनाने की तैयारी हो रही है। एक और औपचारिकता का निर्वहन करने में कैसे जुट गया है सारा हिंदुस्तान। एक तमाशा और जो नहीं देख पाएगी कभी वो। उसके नाम पर देश बंद करने का प्रयोजन, आयोजन जो आन पड़ा है। जिस बंद की खबर सुनते ही कभी घरों में दुबक जाती थी वो। अनशन, धरना, प्रदर्शन के कारण कॉलेज जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी जो। आज उसी के नाम पर घरों से जिंदाबाद होकर निकलेंगे लोग। पुलिस से भिड़ेंगे। अच्छा हुआ अब वह कभी नहीं ले सकेगी गणतंत्र दिवस की सलामी। लोग, उसे चाहने वाले गणतंत्र दिवस नहीं मनाने का संकल्प ले रहे हैं। नहीं मनाने के लिए एक-दूसरे को आमंत्रित, न्योत रहे हैं। अच्छा हुआ, वो नहीं देख सकेगी परेड। नहीं देख सकेगी कभी वो कि उसका हमसफर, वो दोस्त जो उस रात सिनेमा देखकर साथ लौट रहा था। वो अंतिम सफर का उसका एकमात्र अपना वही साथी आज भी सदमे में है। उसने खाना भी त्याग, छोड़ दिया है। सच, अच्छा हुआ, वो मर गई। यह मैं नहीं, इसी सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान के लोग कह रहे हैं। इस बात को पंसद, उसका समर्थन करते दिख रहे हैं। मगर, इस हालात मेंं भी एक सवाल। जाकर देखिए उस औरत को। पूछिए, सवाल कीजिए उस मां से। क्या कहती है वो? वही उसको जन्म देने वाली मां। पूरे 23 वर्षों से उसे पल-पल निहारने, पालने वाली मां। उस लड़की के साथ रात-रात भर जागने वाली मां। दु:ख-दर्द में हिम्मत टटोलती, सहलाती मां। जो उस क्षण भी उसके साथ सिरहाने में खड़ी थी। क्या उसके मुख से कोई शब्द वाक्य कभी ऐसा उतरेंगे कि अच्छा हुआ वो मर गई। इस शब्द को सुनने, कहने से पहले वो खामोश, मर जाना चाहेगी। मौन, बूत बन गई है वो। हालात भी निर्दयी, यही है। वो मां दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल में खुद से जूझ, नि:शब्द पड़ी है। उसकी जेहन में बार-बार उसी बेटी के खामोश शब्द सुनाई पड़ रहे हैं। जो मौत नहींं वजूद चाहती थी। हौसला, उम्मीद, सांसों की चाह थी उसे। यकीनन, मरी नहीं मार दी गई वो। कभी उस लड़की के घर जाइए। उसके कमरे को टटोलिए। वहीं रखीं पुरानी गुडिय़ों से पूछिए। वो टेडी वियर की जुबानी। वो बंदर के छोटे-छोटे बच्चे। वो जोकर क्या अब भी खिलखिलाते मिलेंगे यह कहते कि अच्छा हुआ, वो मर गई। लड़की का वो पैतृक मेड़वार कलां गांव। जहां उस रात हर घरों में चूल्हा भी उदास, बहुत रोया। उसे किसी ने आग नहीं दी। उस आग से पूछिए। उस लोह। उस पाथर। उस मिर्च की तिताई। उस द्वारका सेक्टर 24 स्थित गर्म जमीन से पूछिए। उन लकडिय़ों के ढेर से पूछिए जिस पर बलात लेटना, सदा के लिए सोना नहींं चाहती थी वो। उस शेष राख, अस्थियोंं उस हाथ से जिसके अंतिम स्पर्श से उसे पंचतत्व मेंं समाहित होना पड़ा। उन नदियों से पूछिए जिसने उसकी वजूद को सहेज कर सदा के लिए रख लिया है अपने पास। गांव के उस आंगन में झांक कर देखिए। वहां रखे, पड़े कोई अवशेष, स्मृति चिह्न आपसे लिपटकर जरुर रो पड़ेंगे। कभी दिल्ली, जहां महावीर एनक्लेव के जिस कमरे में वह रहती थी। वहां उस कोने में पड़ी किताबें क्या कभी बोलती, लिख सकेंगी अब कि अच्छा हुआ वो मर गई। कभी उसके गांव के लोगों से। उसकी सहेलियों,उस अंतिम सफर के उस दोस्त। उस बाप के कंधे पर हाथ रखकर पूछिए। क्या यही जवाब मिलेगा? अच्छा हुआ वो मर गई? भले देश की हर लड़की के चेहरे में आज उसी का ही अक्स उभर आया हो। उसकी आत्मा हर लड़की में वास कर रहा हो। भले ही उसकी ताकत एक ढाल बन संग्राम की मशाल पूरे देश में जला रही हो। क्रांति की शंखनाद, एक बिगुल चहुंओर भले ही सुनाई दे। लेकिन वो चीख-चीखकर तब भी कहती फिरेगी। हर कोने से उसकी यही सदा, आवाज आ रही है। वो जिंदा रहना चाहती थी। वो जिंदगी की सलामती चाहती थी। वो जानती थी। उसने अदालत को जो बयान क्रमात बेहोशी की हालत में दिए उसपर अदालत, उस काले कोट पहनने वाले कितना यकीन,भरोसा करेंगे। वो उस चालक का नाम जानना चाहती थी जिसने उसकी जिंदगी को उस मौत के मोड़ पर लाकर उतार दिया। वो उस नाबालिग का हाल हर दिन की उसपर हो रही कार्रवाई की फेहरिस्त पढऩा चाहती थी जिसने उस रात उस बस से उसे आवाज लगाई थी, आ जाओ। वो मरना नहीं चाहती थी। वो तो खुशमिजाज लड़की थी। छोटे शहर की बड़ी लड़की। एक ऐसी लड़की जो ख्वाब नहीं देखती। वो परिवर्तन की बात नहीं करती। वो सिर्फ हक जताना, उसे हासिल करना चाहती, जानती है। वो इंसाफ किए, लिए बगैर मरना नहीं चाहती। वो अंत तक उस सुबह का इंतजार करती रही। वो बलात्कारियों का सिर्फ क्रूर चेहरा ही महसूस कर चुप रहने वाली नहीं थी। वो उसका नाम, पता जानना चाहती थी। उन दरिंदों के घर जाकर उस मां उस बहन उस पत्नी से सवाल पूछना चाहती थी। आखिर, रात को निकल गई तो क्या कसूर कर गई। वो सरकार से विलंब हो रहे न्याय पर, उस पुलिस से सवाल पूछना चाहती थी उस तैयार चार्जशीट के पन्नों पर विमर्श चाहती थी जो दायर होगा? उन डॉक्टरों के लिए भी कई सवाल थे उसके जेहन में। आखिर, क्यों हुई इलाज में चूक। क्या कोई दबाव था कि इतनी देर कर दी सिंगापुर भेजने में। उस समझदार, बहादुर बेटी को आज भी जवाब का इंतजार है और आप कह रहे हैं, लिख रहे हैं अच्छा हुआ वो मर गई। अरे, मर गया ये देश और जिंदा सिर्फ जीवित रह गए तुम…।

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