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आइ हेट माइ इंडिया

sach mano to
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मेड इन इंडिया आज के युवा वर्ग और उनका गणतंत्र दिवस नहीं मनाने का फैसला कतई स्वीकार, न्यायोचित नहीं दिखा। यह तर्कसंगत, देशहित में भी नहीं। दिल्ली गैंगरेप के बाद उपजे विरोध। दामिनी के समर्थन में उठते हजारों हाथों का यह फैसला अधिकांश दिल्ली व वहां की केंद्र सरकार के खिलाफ ज्यादा मुखर, स्वभाविक। मगर, इसकी धमक, दौड़ वो डोर उस आंच की धधकती लौ उस शहीद जवान ज्योति से भी तेज जल उठी जिसने पूरे देश को एक बारगी लपेटे में गरमा, सुलगा दिया। ऐसे में, विरोध, गणतंत्र दिवस नहीं मनाने का तर्क, आधुनिक तरीके से संवाद स्थापित करती युवाओं की टोली भूल गई ये मेरा इंडिया, आई लव माए इंडिया। नतीजा, युवा वर्ग का समर्थन गांव वहां की पगडंडियों। खेतों से होता, पूरे समाज, संपूर्ण देश को चुटकी में धधका, सुलगा दिया। सोलह दिसंबर के बाद से ही धीरे-धीरे कारवां, हर उम्र के युवा इस गणतंत्र दिवस से खुद को अलग, दूर रखने की सोचते, उसे प्रचारित करते चले गए। वंदे मातरम् कहने, गाने वाले नौजवान हर जगह इस पवित्र दिवस से खुद को दूर रखते पता नहीं किसके हवाले इस वतन को छोड़ विरोध के इस स्तर, स्वरूप जिस नस्तर को थाम लिया शायद सोचनीय।
कोई व्यक्ति, स्त्री या पुरुष देश से भी बड़ा है या हो सकता है पहली बार किसी राष्ट्र ने यहां के नागरिकों ने महसूसा, देखा। 65 साल में पहली बार ऐसी चुनौती, विवशता इस देश ने भोगी जब कोई अपना ही बगावत पर इस कदर उतारू हो गया हो। उस धरोहर की रक्षा भी कहीं कोई करते नहीं दिखा जिसके बदौलत आज विश्व को चेला और खुद गुरु की भूमिका में रहने वाला यह देश अपनी मातृभूमि उस मां की रक्षा करने को भी कहीं से संकल्पित, तैयार, शपथ दोहराने की स्थिति, मिजाज में नहीं उतरा। साफ दिखा, कैसे एकता, अखंडता, खुशहाल संप्रभुता पर कोई आंच अपना ही कोई खून, उसे निचोड़, नोंचने, तोडऩे, मिटाने पर आमादा है। देश की अखंड विरासत के साथ एक दुष्कर्म सरीके। शायद यही वजह कि तिरंगा को सलामी देने को एक खास वर्ग जिस पर भविष्य, इस देश की बागडोर है जो कलका इस भारत मां का बागवां है, तैयार नहीं हुआ। तिरंगे का कर्म, उसकी पूजा, अविरलधारा को मोडऩे की नापाक कोशिश की गई जिसे शायद कतई कोई भारतीय नहीं बर्दाश्त कर सकता। विरोध, पहले भी हुए हैंं पर यह तरीका तिरंगे को उलटा लहराने के मानिंद था। विरोध महात्मा बुद्ध ने भी किया। सम्राट अशोक, चंद्रशेखर, भगत सिंह, खुदीराम सरीके न जाने कितने विरोधी इस पवित्र भूमि पर जन्मे, हुए जिनके नाम आज भी इतिहास के पन्नों में मिलेंगे, दफन हैं। या फिर वो जिसे आतंकवाद ने हमसे समय रहते छीन ले गया हो, जिसने सीने पर गोलियां खायीं, सड़कों पर बम से लहूलुहान हुआ। या फिर वो जिसने एलओसी पर देश का सिर नहीं झुकने दिया। खुद अपना सिर कटाकर अभी-अभी लौटा है उस राख की गंध से अभी भी विरोध के स्वर साफ सुनाई पड़ ही रहे हैं। वही हेमराज, सुधाकर वही करकरे जिसकी कुर्बानी को हम याद नहीं रखना चाहते। हम कितने कम दिनों में ही उसे भूल गए। उन शहीदों की चिताओं पर हम लौटकर जाना नहीं चाहते दोबारा। मेले अब हम कभी नहीं सजाते जहां। वहां पुष्प अर्पित करना हमें गंवारा नहीं। उस तरफ का रास्ता हम कब भूल चुके। आज उसी कतार, उसी भूलने की कशमकश में हम फिर वहीं उसी दोराहेंं पर आ गए हैं। स्वतंत्रता या ये गणतंत्र दिवस को हमने ला खड़ा कर दिया है उसी कतार में जिसे भूल जाना ही हम अब बेहतर समझने लगे हैं। उस तिरंगे की तीन रंगों की कीमत चुकाने की ताकत हममें शेष बची नहीं या हम उसे चुकाते अब बहुत थक चुके हैं। मगर हमारी याददाश्त। एक और स्त्री सम्मान दिवस मनाने की हमें कितनी जल्दी है। इसकी अपील करते, खुद को देशभक्त बताने को बेचैन हम कितने असहाय, लाचार दिख रहे हैं आज, यह सोचनीय है। मत भूलिए। देश भक्त होना, कहलाना, सड़कों पर यूं ही उतर जाना हम अरसे से करते आ रहे हैं,करते रहेंगे। मगर
यह दिवस, इसकी निर्धारित अवधि। वही सुबह आठ से सांझ होने तक लहराता हमारा विश्व विजयी तिरंगा उन शहीदों उस देश की निशानी जिसे बदलने की हिमाकत भी कोई करे यह भी अब हमें मंजूर। तय है, इस सुखद क्षण, तिरंगे को सलामी देते उसमें शामिल होने,जन-गण-मन गाते पांव के बल खड़े लोग हमें अब मंजूर नहीं। सोचिए, अगर ऐसा हो, इस संपूर्ण देश में आजादी की मशाल जलाने वाला कोई नहीं मिलें। तो मान लीजिए वो दिन दूर नहीं जब उसी दामिनी सरीकी महिलाओं के आंसू भी सैलाब लेकर आएंगे जिन्होंने इस देश की आजादी में या तो अपने सुहाग खोए हैं या स्वयं लक्ष्मीबाई बन खून बहाएं हैं। दामिनी मरी, विरोध हुआ लेकिन ये विरोध देश की कीमत पर स्वीकार नहीं। जरुरत आज सोच बदलने की है और गणतंत्र दिवस से बेहतर कोई और मौका फिलहाल नहीं था जिसे हमने गंवा दिया एक और विरोध का पाठ पढ़कर। समय बदल रहा है, बदला भी है। एप्पल ऐसे जूते बना रही है जो पहनने वालों को बताएगा कि उसके जूते पुराने हो गए हैं उन्हें इसे बदल लेना चाहिए। बताइए, एक जूते के फटने पर सेंसर सक्रिय हो जाता है उसे बदलने की आवाज सुनाई पडऩे लगती है लेकिन अपनी मां ये भारत भूमि बदलाव, सोच बदलने की मांग स्त्री, पुरुषों से कर रही है हमारे नेताओं से करती सड़ती जा रही है लेकिन बदलने के लिए हम कतई तैयार नहीं। हमें बदलेगा कौन? लोग इंसाफ मांग रहे हैं और आप हैं कि गणतंत्र दिवस का विरोध कर अब भी कह रहे हैं, ठीक है।

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