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पहले जात पूछ लो

sach mano to
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समय गवाह है। समय-काल भी यही है। कलाकारों, अभिनेताओं की जात पूछकर ही लोग सिनेमाघर या थियेटरों में जाएं, पहुंचें तो अब बेहतर। हां, पटकथा, संवाद, फिल्म या नाटक के श्रव्य व दृश्य कोई माध्यम को तैयार, प्रदर्शित, पूर्वाभ्यास करने से पूर्व ही धार्मिक कट्टरपंथों खासकर मुस्लिम संगठनों से प्रमाण पत्र, हरी झंडी मिल जाएं। वे आराम, पूरी तसल्ली से पहले इसकी बारीक अध्ययन कर लें। देख, समझ लें कहीं से आहत, खुद को टारगेट होता नहीं महसूस करने के बाद इसे मंजूरी दें यही मौजूदा हालात में समीचीन भी। कारण, देश को फिलहाल सेंसर बोर्ड की कतई आवश्यकता नहीं। जरुरत है, एक धार्मिक चरमपंथी, कौमी जूनूनी संगठन की जो निर्देशक, अभिनेता या सिनेमा व नाटक में पैसा लगाने वाले निर्माताओं के लिए मुरीद और उन्हें सुकून से काम करने की इजाजत पूर्व में ही सुनिश्चित करें। ताकि, कल होकर फिल्म प्रदर्शन के नाम पर तमिलनाडु जैसी राज्य सरकारों की सुरक्षा व्यवस्था, कम पड़ते सैनिक बलों की पोल न खुले या फिर उसे बिहार व यूपी से भी नीचा दिखा दे जहां पहले से ही तार-तार व्यवस्था, हालात, कानून व्यवस्था को लेकर चिंता है। या फिर दिल्ली में बार्डर फिल्म देखते दर्शकों को बलात बाहर निकाल सिनेमाघरों को ही आग के हवाले होने से रोका जा सके। साफ है, हाल के दिनों में साहित्यकारों से लेकर बुद्धिजीवी तक। फेसबुक पर मुंबई बंद का विरोध करने वाली लड़कियों से लेकर कलाकारों के पूरे समूह, जत्था, उनके कृत्यों पर राजनीतिक संगठन, धार्मिक उन्माद, जोड़-तोड़, कुंठित मानसिकता ने जिस सलीके हल्ला बोला, सूली पर लटकाने की कोशिश में जुटा है, प्रभु ईशू की याद ताजा, एक घाव कर जा रहा है। अभिव्यक्ति की धारदार विधा को जड़मूल से नष्ट, उसे तंगो-तबाह, उखाड़ फेंकने की जो कोशिश इन दिनों हुई है या हो रही है। संकीर्णतावाद ने जिस छिन्नभिन्नता के बर्बर कुल्हाड़ से संस्कृति उसकी साहित्यक इबादत को छलनी, लहूलुहान किया है, निसंदेह सोचनीय। चाहे, वो क्रांति की वर्षगांठ जब मावकोवस्की की कविता नाट्य रुप में सड़कों पर आयी। या 80 के दशक का वह शुरुआती दौर जब नुक्कड़ नाटक का विकास दिखाई देता है या फिर 1975 के उत्तराद्र्ध में महंगाई से तड़पते छात्रों का फूटा गुस्सा वो नाराजगी जो नाटकों के विकास का क्रम जोड़ता है या फिर 75 के आपातकाल के बाद नाट्य उभार जब आंदोलन का शक्ल अख्तियार कर जोर पकड़ा तो सामने साल 89 में साहिबाबाद के झंडापुर गांव में सफदर हाशमी की लाश मिली। फिर शारजांह में न सिर्फ भारतीय नाट्य कलाकारों को जबरन प्रस्तुति से रोका गया बल्कि लता मंगेशकर के कार्यक्रम भी धार्मिक उग्रता के भेंट चढ़े, बहुत बखेड़ा हुआ। क्रम, वर्ष 04 में बिहार की राजधानी में संस्कृतिकर्मी की निर्मम हत्या। उन्हीं दिनों हिमगिरी एक्सप्रेस में कश्मीरी नाट्यकर्मियों के साथ दुव्र्यवहार के बीच हुसैन के सरस्वती के नग्न रुप में तैल चित्र, चप्पल पर गणेश के अवतरण। फ्रायर का समलैंगिक होना। तस्लीमा के लज्जा पर कट्टपंथों के आतंक की कहानी धीरे-धीरे वर्ष 12-13 तक आ पहुंची और अक्षय के खिलाड़ी 786 का हुक्का मार… या असीम के कार्टून विरोधियों के निशाने पर आ गए। डेविड फिल्म से या हुसैन के गाने को निदेशक बिजॉय नांबियार ने इस वजह से हटाया कि मुस्लिम संगठनों को इससे आपत्ति थी, कौन झमेला मोल ले। यानी, मुस्लिम संगठन पूरी तरह अंपायर की भूमिका में। हालात, कहीं हनी के बलात्कारी गाने…,शाहरुख का लेख, राजनीतिक बयानबाजियों व सिनेमा उद्योग के योद्धाओं की नाराजगी के बीच से झांकता विश्वरुपम… या फिर सलमान रुशदी को पहले कोलकाता बुलाना, आमंत्रित कर उन्हें ममता की लताड़ लगवाना…या फिर आशीष नंदी को गिरफ्तार नहीं कर कोर्ट का विभिन्न राज्यों व केंद्र का रुख जानना…और इस सबके बीच, जयललिता का कमल हसन को मुस्लिम संगठनों से सलाह-मशविरा का झांसा या फिर दिग्विजय का वो सवाल कि आखिर अभी तक पकड़े गए हिंदू आतंकवादी संघ के ही कार्यकर्ता क्यों? ये तमाम सवाल उसकी जड़, कहां किस कबिलाई, धार्मिक मांद से निकली सोच है, पता लगाना, जानना आज देशहित में भी जरुरी। ऐसे में, कलाकार, एक संस्कृत-रंगकर्मी, बुद्धिजीवी कहां हैं? क्या हैं? उनका वजूद, स्वरूप, समाजशास्त्र व परिभाषा क्या है? स्थानीयता क्या है? अभिनेता उनका कर्म वर्तमान में कहां, किस दशा में, किस तरफ खड़े हैं? उनकी पोजिशन क्या है? यह सोचना आज लाजमी और सामयिक भी। कारण, यह भारतीय धर्मनिरपेक्ष छवि यहां की सांस्कृतिक मूल्यों उसकी सेहत से सीधा जुड़ा होकर कलाकारों के झुंड से निकलकर साहित्यक मंडी से होता आम लोगों की अभिव्यक्तिवादी सोच, मानसिकता उस धार पर आघात है जिसके लिए कोई ठोस रणनीति हमारे सामने कहीं नहीं। सांगठनिक छिन्नभिन्नता, प्रशासनिक हथौड़े, राजनेताओं के यूज एंड थ्रो की नीति, सामाजिक, आर्थिक पाबंदी से पिसते लोग उस मुकाम पर खड़े हैं जहां सौ साला सिनेमाई उद्योग व भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाट्य काल से आज तक के उपजे संक्रमण काल को उन्हें खुद पोछना, धोना होगा। धार्मिक भावनाओं की गवाही देकर, उसे पछुआ हवा से और लहका, बहका-सुलगाकर सांस्कृतिक आतंकवाद परोसने। उसकी जमीन तैयार करने वाले मजहबी फसादी भारत को निशाना बनाने से कब बाज आएंगे? पाकिस्तान, अफगानिस्तान या अमेरिका को विश्वरुपम में कोई दिलचस्पी कोई परहेज नहीं लेकिन भारतीय मुसलमानों का एक खासा वर्ग, पंथनिरपेक्षता व दीनी अमाल से दूर, सांप्रदायिक औजार से लैस जरुर विरोध के स्वर अलाप रहे हैं और उनपर हाथ रखने को कतई कोई तैयार नहीं। यही इस देश की सबसे बड़ी संवैधानिक संकट भी है। हर-तरफ ताकतवर होते, दिखते मुस्लिम संगठन, एकतरफा फैसला सुनाते कलाकारों को हाशिए पर धकेल रहे हैं और लाचार अहिंसा के पुजारी गांधी सरीके सिने पर हिंसा की गोली खाए सबको सीख देते आखिर कब तलक फिरते रहेंगे, सोचनीय?
अमेरिकी वल्र्ड सेंटर के बाथरूम भी इस बात के गवाह, ताकीद करते दिख रहे जहां अभी-अभी नस्ली व लैंगिक भित्ति चित्रों और उसपर की गई टिप्पणियों को साफ किया जा रहा है। अच्छा यही होता…जात पूछकर शौच की इजाजत देते…तो बेहतर।

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