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खतना करवाती वो

sach mano to
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मजहब, धर्म, कानून उसकी जरूरत आज महिलाओं के लिए अलग-अलग रीति-रिवाजों, रहन-सहन, मर्यादा,विचार, चिंतन के साथ सामने है। स्वेच्छाचारी आवरण में उधार या लिपटी हिंदू-मुस्लिम महिला होने का मतलब भी आज भिन्न, स्वतंत्र है। हिंदू स्त्री की सोच, मंशा, स्वभाव या फिर मुस्लिम नारीवाद के स्तर उसके स्वरूप का ही क्यों न हो सवाल। दोनों की विचारधाराएं, आस्था, सहूलियत,धर्म के प्रति मोह,मजबूरी के साथ जुड़ी, खड़ी हैं। नतीजा, हिंदू मुस्लिम महिलाओं की संपूर्णता उसका आधार, देह की परिभाषा, चरित्र आज वर्गीकृत हो चुका है। दोनों की सोच भी अलग-थलग रहे इसकी भी कोशिश हो रही है। बाजार का एक अहम हिस्सा ताकत, ताजगी व संपूर्ण जोश का अहसास कराने को व्यग्र है। वहीं वल्र्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन की चिंता एक कोने में अलग।
महिलाएं आज खुद को दो श्रेणी में खड़ी पा रही हैं। एक हिंदूवादी वर्ग, जिसका तबका धर्म संसद, धार्मिक बंधन से मुक्त तरह-तरह की धातुओं का सेवन करने को बेचैन। जिनसेंग, शिलाजीत, सालमपंजा जैसी दुलर्भ जड़ी-बुटियों का मिश्रण, उसका सेवन, घोल चखने को आतुर, उसे गटक, खा, पचा, मालिश करवा रही हैं। तन में ताजगी, मन में उल्लास का आभास, संचार कर रही हैं। वहीं मुस्लिम महिलाएं मजहब की आड़ में खतना करवाने की जल्दी में हैं। ताकि, उनकी कामेच्छाओं में शीघ्र कमी, ह्रास हो सके। वो उस चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुंच सके जहां फिसलन का डर हो और बाजार उन्हें अपनी ओर खींच ले। अपनी शारीरिक जरूरतों को शांत, एकाग्र, सुसुप्तावस्था में रखने के लिए मुस्लिम महिलाएं खतना जैसी भयावह हलाहल को आत्मसात करने को लाचार, विवश, मजबूर, हताश दिख रही हैं।
ऐसे में, हिंदू धर्म की महिलाओं का वो खुलापन। संपूर्ण शारीरिक आजादी, मुस्लिम महिलाओं को लेस, सुलगा रहे हैं जो बाजार से अभी-अभी तरबतर, रूबरू, ऊर्जान्वित हो सुखद एहसास लिए लौटीं हैं। काश…मुस्लिम महिलाएं भी इस क्षण, पल को सजों सकती? मगर, इस एहसास को जिंदा नहीं रख सकती वो। कारण, मजहबी दीवार एक नासूर, दर्द बनकर उनके सामने पोशीदा है। मुस्लिम कट्टरपंथी उनके अधिकार, चाहत में कटौती कर, धार्मिक संविधान में इस कदर बांध, पाश लिया है कि मुस्लिम महिलाओं को उन्मुक्त जिंदगी जीने देने की कतई आजादी नहीं। हालात यही है। मुस्लिम युवक भी कंडोम लगा सकते हैं मगर लगाते नहीं। उनके लिए भी बाजार उतना ही विशाल, समान तरीके से खुला, तैयार है। तरह-तरह के जैल, कैप्सूल उत्साह, जोश व ताकत के लिए उपलब्ध। मगर, वो खाते नहीं, लगाते भी कुछ नहीं। यह उपयोग, धर्म की जरूरत से शायद कम। औलाद की चाह और कुर्बानी बकरे की, बस यूं इसी सलीके। लिहाजा, ऐसे मुस्लिम संगठन या उसके रक्षक अपनी ही महिलाओं के स्त्रीत्व होने पर एक खतरा, उनके उपर एक नस्तर चलाने से बाज नहीं आ रहे। जिसमें जबरन, मुस्लिम महिलाओं, कुंवारी लड़कियों का खतना करवाकर उनकी कामेच्छाएं कम की जा रही हैं। इस कुप्रथा को विस्तारित करने की हड़बड़ी में इसे जन्माने वाले महिलाओं की देह को धार्मिक उन्मादी आस्था, आत्मा से जोड़कर समाज में खोट पैदा कर रहे हैं। फलसफा, समाज के भीतर महिलाओं के दोहरे चरित्र, दो रंग सामने, बेपर्द हैं। बात यहां संपूर्ण स्त्रीत्व, नारी जाति, जगत उसके उत्थान खासकर स्वतंत्र जरूरत की हो रही है।
एक हिंदू लड़की अभी-अभी घर लौटी है। टेलीफोन उठाती है। अपने हमसफर, दोस्त, पति को बनाना, मेंगो, आरेंज फ्लेवर की कंडोम लाने को न्योतति, बोलती हैं। पास, बगल में उसी कमरे में उसका करीब सत्तर साला बाप, चश्मा फर्श पर टटोलते अपने लिए भी एक स्टेवरी कंडोम मंगवाने की जिद करता दिखता है। दूसरी तरफ, बेटी के फिल्म ऑन द रोड में निर्वस्त्र होने की खबर से क्रिस्टीन की मां खुश,उत्साहित है। पूरे परिवार में उसके निर्वस्त्र हो जाने पर जश्न, गर्व का अहसास है। बेटी की कामुकता परोसते पोस्टर के चर्चे, उसे देखती उसकी मां के दोनों हाथ जुड़ गए हैं बिल्कुल तालियों की शक्ल में। निसंदेह, इस सबके बीच कहीं कोई हर्ज, परहेज, गुरेज कोई संकोच नहीं। वहीं मुस्लिम महिलाओं की भावनाओं,जरूरत, देह की गुंजाइश पर जबरन हमला हो रहा है। वो खतने के तौर पर अपने गुप्तांग को छलनी करवा रही हैं। इस विश्वास के साथ कि वो कभी कामोत्तेजना का वरण नहीं कर सकेंगी। कहीं से असहमति भी नहीं कि उनके बिंदास बोलने की आजादी मजहब के नाम पर छिनी, झपटी जा रही हैं। उन्हें जबरिया उस मुकाम उस मोड़ पर खड़ा करने की साजिश हो रही है जहां उनके नाजुक अंग भी सही सलामत नहीं बचते दिख रहे। भले, संयुक्त राष्ट्र इसे कुप्रथा मानें। रोक को अग्रसर, विरोध करता दिखे। लेकिन हालात और हकीकत के बीच लहूलुहान एक स्त्री ही हो रही हैं।
आंकड़े गवाह हैं। हाल तक जो आंकड़े सात करोड़ पर थे। हालिया सर्वेक्षण में पंद्रह करोड़ से ऊपर हैं। इसमें नाबालिग मुस्लिम लड़कियां या महिलाएं गुप्तांगों का खतना करवा चुकी हैं। हर घंटे, हर दिन, हर रोज छह हजार लड़कियां इस प्रोसेस से गुजर नाजुक अंगों को छिलवा, कटवा, खून से सना रही हैं। इस सोच, समझ व शर्त के साथ कि उनमें कामुकता घटेगी। विवाह पूर्व शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा में कमी आएगी। मगर हकीकत के पीछे वो मजहबी अफीम वो धार्मिक प्रवृत्ति है जिसके रक्षार्थ उस प्रक्रिया में लड़कियों के सेक्स आर्गन यानी जनानांगों के क्लिटोरिस यानी जनानांग का बाहर रहने वाला सारा हिस्सा काट दिया जा रहा है और मात्र मूत्रत्याग व रजोस्राव के लिए छोटा द्वार छोड़ मात्र स्त्री होने का हक शेष रख, बचा दिया जा रहा है। वैसे, पचास अफ्रीकी देशों समेत विश्व के 110 से भी ज्यादा देशों ने इस अंधविश्वास का विरोध किया है। हालात भी यही है। स्वाजीलैंड की महिलाएं कानूनी तौर पर नाबालिग ही हैं और वह वहीं देश है जहां दो तिहाई किशोरियों का यौन उत्पीडऩ हो चुका है। कहीं ऐसा ना हो संयुक्त राष्ट्र महासभा की ह्यूमन राइट्स कमेटी निंदा प्रस्ताव का मिस्ड कॉल मारता ही रह जाए और बैग में मिर्च पाउडर और मुंबई में मनचलों को थप्पड़ मारने की आजादी पाने वाली महिलाएं खुद को फेविकॉल से साटने, चिपकाने की फरोशी में इस खतना को फैशन न बना डाले। ठीक वैसे ही जैसे, स्वाजीलैंड में मिनी स्कर्ट और क्राप टॉप पर पाबंदी बलात्कार को रोकने के लिए यह कहते हुए लगा दिया कि इसमें महिलाओं का पेट दिखता है। मगर, उसी देश में इंडलामू को प्रतिबंध के दायरे से बाहर रखा गया है जिसमें टॉपलेस होकर नाचती हैं कौन सिर्फ वही महिलाएं।

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