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होमो-गे सब बी. ए. पास

sach mano to
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देश की मान्यताओं पर खतरा उग आया है। भोगवादी प्रवृत्ति ने मनुष्यता की तमाम सीमाएं लांध, तोड़ दी है। सेक्सवाद आज सबसे रहस्यमयी मौन, एक ताकतवर चुप्पी के साथ सामने निर्वस्त्र है। और हमारा समाज…। अज्ञात हंसी मंद-मंद मुस्कुराते इस शहद की चासनी में सराबोर, लसलसाए, चुपचाप खड़ा, तमाशबीन बना है। जहां, बसों से लेकर ट्रेनों की सवारी घर की शक्ल में दरवाजों के भीतर कैद, बंद मिलते हैं। कहीं कोई आश्चर्य, पछतावा, संकोच नहीं। यह क्षणिक आवेग नक्सल उस आतंकवाद, भ्रष्टाचार से भी दमदार, खतरनाक, बेखौफ कहीं भी देह को मचोडऩे को तैयार। हश्र, टीस, जख्म में लहूलुहान पूरा परिवार, समाज का हर तबका। समूचा देश मरहम लगाने को बेचैन। तार-तार, हताश शक्ल में। मुंह छुपाने को विवश, लाचार, सड़कों पर पुलिस से जूझते, लड़ते-हारते- हांफते। मानो, हर तरफ, हर नफस, संपूर्ण धर्म, संस्कृति, पूरा कुनबा ही आज अप्राकृतिक होने पर आमादा हो। पहले, यौन शोषण फिर दुष्कर्म अब अप्राकृतिक मैथुन के रूप में। उसी का आवरण लपेटे, बिछाए। उसी के रसीले स्वाद, फ्लेवर में। बिल्कुल नंग-धड़ंग। जहां, शर्म, हया, लोक-लाज, पद-प्रतिष्ठा, गरिमा, उम्र की सीमा कोई मायने नहीं। सभी नग्न। उसी की भाषा बोलते। पूजते-परोसते-खाते। समाज के हर तबके को। स्त्री-पुरुष को बिना परिभाषित, निर्धारित, वर्गीकृत किए। बेशर्म आंखों से ताकते, निहारते, चटकारा लेते, हजम करते। मादकता यानी तरह-तरह के सेक्सरेसेपरी, व्यंजनासन का सपाट मंचन। उसी का पाठ, चित्रांकन, नायिका की देह पर कुछ लिखते। क्या नौ-दस साला नर, क्या 75 वर्षीय मंत्री। कोई फर्क, कहीं कोई समझौता नहीं। सब कुछ अप्राकृतिक। विनाश की ओर बढ़ता पूरा देश-काल। भला प्रकृति की शक्ति, उर्वरा, उसकी पवित्रता, अनायास अपवित्र, अनियंत्रित, भटकाव में बहकते, अप्राकृतिक, विकराल स्वभाव में कैसे? प्रकृति का हर रंग अचानक इतना अप्राकृतिक, विकृत मनोदशा में क्यों-कैसे? अप्राकृतिक तरीके से बादल फटते हैं। हजारों मानव-पशुओं की अप्राकृतिक मौत गले लग जाती है। कहीं, अप्राकृतिक बारिश, कहीं सूखा। कहीं रिश्तों के बीच झूलती-लटकती बच्चियां। मासूम जिंदगी की वीभत्स अनकहीं चेहरे। हमें झकझोरती। खुद की ओर खिंचती। दु:ख, विषाद नजरों से टटोलती, कुछ बोलती। चिंतित, हताश, सोचने को विवश करती। सकपकाई सी। यानी फिर से समाज में उसी नग्नपंथियों का जोर। जहां वस्त्रहीन, निरावरण अवस्था में नर-मादा नग्न विचर रहे। बाहर मैदान में क्रीड़ा़-कौतुक करते। पानी में देहों पर नग्न रेत की धार बहाते, नहाते, स्नान करते। भोजन संबंधी आयोजन में लगे। खुले में आग पजारे, जलाए। सच है, महाविनाश की विध्वंस लीला जब कराल-अट्टहास के साथ असहाया पृथ्वी की छाती पर नग्न नृत्य करने लगे। समाज में पाश्विक मनोवृत्तियों से परवश, निस्सहाया स्त्रियों का आर्त-क्रन्दन निरंतर ध्वनित होकर परिवेश, समाज के आकाश को विदर्ण, छेद करते दिखे। वीभत्स, धोर नीचतापूर्ण व निपट अमानुषिक अत्याचार की बातें स्वत: प्रकृति से दूर अप्राकृतिकता की श्रेणी में आ उतरे तो चकित, विभ्रान्त, वित्रस्त मानवीय स्वभाव, ह्रदय का अप्राकृतिक होना स्वभाविक। ऐसे में, समाज का अमानुशिकता की ओर बढ़े कदम से पतन की सीमा कल्पनातीत है। वर्तमान सभ्यता की उच्छृश्रंखता विचारें तो परिणाम प्रधानत: पंभावात्मक के संकेत साफ हैं। जहां युद्ध, विग्रह, अंतर राजनीतिक कलह, अशांति व उन्मक्त इंद्रिय परायणता के अतिरिक्त और कोई लाभ इस सभ्यता से होते नहीं दिख रहा।
प्रकृति का साथ छूटने की पीड़ा देखिए। एक भाजपाई मंत्री हवस में तल्लीन। संस्कारित उग्र दराज पत्नी, बेटी को छोड़। मोहपाश में एक नौकर के अंगों को तलाशता, अप्राकृतिक हो उठता है। एकनामी पति अपनी गिरामी पत्नी, सफल नायिका, एक मॉडल को अप्राकृतिक संबंध कबूलने, करने को धमकाता है। बसपा का मंत्री गर्भवती बीवी के साथ अप्राकृतिक रसलोलुप्य चाहता, मांगता और विरोध करने पर उसकी पिटाई-मारपीट सरेआम। वेस्ट प्वाइंट में सेना की प्रशिक्षण ले रही महिलाओं की सर्जेंट नहाती हुई तस्वीर उतारते। पांच बेटियों के साथ बीस साल तक रेप करता बाप। कहीं एक युवक अपने दोस्त। एक लड़की अपनी ही सहेली से अप्राकृतिक, बिल्कुल असहनीय, असहज, उन्मुक्त।
समाज क्षण भर में पराया कैसे हो सकता? समय की सुई में ये पल-पल अप्राकृतिक बदलाव। हर वर्ग का अनायास होमो सेक्सुअल-गे हो जाना, कहां से, कैसे? निसंदेह सोचनीय। जिस नारी का जन्म से सम्मान करना हमने सीखा। उसे ही अप्राकृतिक सजा भोगने को विवश, लाचार, सजा देने का ये रिवाज, क्यूं? भारतीय संस्कृति की पूजा-परंपरा, सरोकार, धरोहर, रीति-रिवाज, रहन-सहन में जिस औरत के स्तन से दूधपान कर लिया वह मां की श्रेणी में आ सी गई। मगर, आज हमारे समाज के बहुमूल्य लोग उसी औरत को खरीद रहे हैं जो एक-दो दिन पूर्व ही मातृत्व को भोगा है। मंशा साफ, उसी के नव उठान वक्ष से दूध का रस उसका पान किया जा सके महज शौक, सनसनी, मदनोत्सव पूरे सेक्सोन्माद के लिए। ठीक उस मंत्री के समान जो अपने नौकर से पहले मालिश करवाता है फिर देह की आग बुझाता, बेशर्म हो उठता है खुलेआम, ट्रेनों, घरों में कहीं कोई पाबंदी, मर्यादा की बंदिश नहीं। संपूर्ण देह को निचोड़ते, फरोशी करते। उसी के सामीप्य, बहते, झांग निकालते, धोते, पोछते। नतीजा, घर के पालतू जानवर भी इन हवसी मानवता से कहीं सुरक्षित नहीं। घोड़े, कुत्ते यहां तक कि डाल्फीन भी बतौर सेक्स मशीनी औजार बने, इस्तेमाल हो रहे। 45 साला टेक्सास पुलिस की पकड़ में आता है जो पड़ोसी की घोड़ी के साथ कामवासना की आग जलाए, पजारे, उसी को धधकाए बैठा था। मेट्रो ट्रेन में सफर करती छोरी अपने ही मित्र एक छोरे के साथ सीसीटीवी फुटेज के सहारे पोर्न साइट की हकदार, हमसफर बन जाती है। इस सबके बीच हसीन, जवान, इश्क करता एक बीए पास युवक भी है बहनों की पेट भरने के लिए अपनी ही मालकिन से छुपता-छुपाता देह बांट लेता है। बाद में मालकिन की बढ़ती प्यास उसकी सहेलियां भी चुपचाप इस उन्मक्त लास्यलीला में सहभागी, तरंगित हो पति-पत्नी के प्राकृतिक प्रेम को विरोध की श्रेणी में अमर्यादित, अप्राकृतिक बना देती है। फलसफा, सिक्वेंसिग आईवीएफ तकनीक सामने, जिससे कम लागत में बच्चे पैदा होने लगे हैं या शाहरुख को अपने ही बेटे अवराम को लेकर सफाई देने की नौबत। अब देखिए ना, क्या आसाराम का इस उम्र, ओहदे धर्म गुरु के चोला में सेक्स के प्रति समर्पण एक अप्राकृतिक स्वभाव सा ही कुछ नहीं दिखता। हालात, जहां शारीरिक सौष्ठव ही उस दहलीज को पार, उतरने को बेकाबू हैं जो पति नंबर 1 कहलाने के लिए जापानी तेल की जरूरत नहीं महसूसता। बस एक नौकर रख लेता है। वही मालिश भी करता है। आवेग के आगे जींस भी उतार अप्राकृतिक, गलेफाश लेता है। या फिर अपने शिष्य की बेटी से कामुकता की हद तोड़ता सफेद दाढ़ी वाला मनुष्य को नैतिकता, आध्यात्मिक पाठ पढ़ाता बार-बार नाबालिगों के जिस्म से खेलने को उकस पड़ता है। वो भी बिल्कुल मुफ्त इंश्योरेंस व एक्सचेंज बोनस के साथ।

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