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हिंदी तू जग की महारानी contest

sach mano to
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भारत दैट इज इंडिया के अमृत मंथन में आत्मधिक्कार व भाषा की हीनग्रंथि से बाहर निकलकर राष्ट्रीय अस्मिता का संवाहक, एक सूत्र वाक्य, ब्रह्म की अलौकिक, विराट, अक्षुण्ण, अटूट शक्तिवद्र्धन के बीच शारदीय आशीष, अनुकंपा ने देश की संपर्क व आधिकारिक भाषा हिंदी को उस मुकाम, दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है जहां हिंदी भाषा पर कुछ भी कहना, बोलना अपनी अस्मिता पर पुन: नए सिरे से विचार करने सरीखे से कम नहीं। बात राष्ट्रीय पहचान की हो या आत्म अन्वेषण का। हिंदी भाषा आज स्मृति, परंपरा, मिथक व इतिहास को नए सिरे से परिभाषित कर रही है। यह दीगर, हिंदी के चाहने-बोलने वाले भले करोड़ों में हों। विश्व में सर्वाधिक, सर्वव्यापी लोग हिंदी को आत्मसात उसे तालुकंठ में समा चुके हों बावजूद हालात-ए-मजबूरियां यही यह ज्ञान-विज्ञान व विमर्श की भाषा बनने से कतराती, दूर नजर आ रही है। सरकारी उपेक्षा नीति ने उसे उसके अपने जरुरी सम्मान से भी वंचित, तिरस्कृत, दूर कर उचित हक नहीं दे सकी। हिंदी पर सभी दिशाओं ने हमले किए। कुठाराघात की हद तक तैयारी ने इसे कई अर्से तक धकेले, पिछले पायदान पर लंबी कतारों में रखने की कोशिश की। उद्देश्य यही कि हिंदी की अटूट शक्ति को कमतर, कमजोर किया जा सके। जिस हिंदी में देश की अखंड भाषा होने की सारी काबिलीयत थी उसे साहित्य, ज्ञान-विज्ञान की परंपरा, क्लासिकल चेतना, संवेदना के लिए जगह नहीं देकर समायोजित ही नहीं की गई। वहां पश्चिमवाद हिंदी भाषा संस्कृति के सामने एक कुल्हाड़ लेकर खड़ा मिला। सिर्फ विज्ञानवाद का घटिया बाजारवाद। देहवादी सोच। यौन लिप्सा के बीच जीभ और जांघ का भूगोल, इतिहास को समेटे वर्तमान को घेरे अपनी उपभोक्तावादी संस्कृति की कामुक, उन्मुक्तता की ऊंची उड़ानों के साथ वहीं शेष खड़ा मिला। नतीजा, भारतीय हिंदी की सर्जनात्मकता, वैचारिकता का संहार इस तरीके शुरु हुआ कि ग्लोबल विलेज में अंग्रजियतवाद ने नवसांस्कृतिक साम्राज्यवाद एकछत्र स्थापति करने की जिद पर उतारू, भाषाई छिन्नभिन्नता का खतरा लेकर मौजूद हो गया। बदत्तर हालात स्वाधीन भारत में साफ दिखती चली गई। नए-नए खुले विश्वविद्यालयों ने हिंदी भाषा संस्कृति को चुन-चुन कर बर्बाद, हाशिए पर पहुंचाना शुरू किया। देश के नए-नवांगुत अंग्रेजीदा शासक वर्ग ने शुद्ध विदेशी राग का ऐसा अनर्गल अलाप किया कि विद्यानुराग से लेकर हितों-लाभों की रक्षा व विस्तार के लिए विश्वविद्यालयी विशेषज्ञों की पूरी शक्ति पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की आधुनिकताओं को जरूरत में समायोजित कर भारत को अंग्रेजी भाषा में लादने, ढोने की परंपरा का श्रीगणेश कर दिया। फलसफा, हिंदी को वर्नाकुलर या गंवारों-पिछड़ों-उपेक्षितों-शोषितों की भाषा कहकर दुत्कार की ऐसी लताड़ लगाई कि देवनागरी बहुत ही सरल और आत्मीय लिपि होने के बाद भी आम जन से दूर होती बड़े सुशिक्षित लोगों की ड्राइगरूम से दूर खिसक गई। भाषा विज्ञान, काव्यशास्त्र और विचारधाराओं के नाम पर अंग्रेजियत हावी होता संपूर्ण पाठ्यक्रम विदेशी चिंतकों, विचारों से पाट दिया। भारतीय चिंतन, मनोविज्ञान के लिए कोई जगह शेष बची ही नहीं। बाजारवादी शिक्षा प्रणाली ने हिंदी को सौतेली मां की जगह देकर खुद शिक्षा व्यवस्था को तोडऩे पर आमादा हो गया। सबसे अधिक हिंदी भाषा ने ही अपनी पीठ को लहूलुहान करने से गुरेज नहीं किया। ज्यादा प्रलोभन हिंदी के पुरोधा ही पाठ्यक्रम की उछल-कूद मचाकर की। विकृति सामने साक्षात दिखा, दिख रहा। माहौल ऐसा पढऩे-सुनने-गढऩे वाले छात्र साहित्यक हिंदी से बचकर भ्रष्ट हिंदी लिखते चले गए। रोजगार के सारे विकल्प बंद। सरकारी समीकरणों ने हिंदी को तख्ती से भी उतार दिया। प्रगतिशीलता के नाम पर सन्नाटा फैलाकर। कुलपतियों की नियुक्ति सरकारों के हाथों में आ गई। शिक्षकों की भर्ती में अंधेरगर्दी चलने लगी। कोई भी कानून हिंदी में दिखे, लिखे तो नहीं ही गए। एक भी कानून भारत की राजभाषा में पारित नहीं हुआ। बस, कानून का मतलब अंग्रेजीयत और अनुवाद हिंदी में कच्चा-कचरा के रूप में। मगर समय बदला। करवट ऐसी ली कि आज हालात फिर से बदलते, समीचीन होते जा रहे हैं। हिंदी इस गरज और लिहाज के साथ मजबूत होती चली आ रही है कि यह हमेशा अब आंदोलनों की भाषा बनी रहेगी। शुद्धतावाद के खिलाफ हमेशा लचीली हिंदी भविष्य उज्जवल के बीच खड़ी मुकाम तलाश चुकी है। ऐतिहासिक झंझावातों से क्षत-विक्षत होने के बाद भी हमारी हिंदी जातीय स्मृति और आत्मबोध बचाए तमाम अंग्रेजी बौद्धिकों, अपरिपक्व राजनीतिज्ञों, गुलामी की मानसिकता से भरे देश के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों, भूमंडलीकार चापलूसों के बाद भी अपनी खुद की लड़ाई जीतती दिख रही है। हिंदी भाषियों की गुलाम मानसिकता व अपनी ही बोली को अक्षम साबित, समझ कर अंग्रेजी पर निर्भरत रहने वाले प्रदेशों के भटकी पीढ़ी ने थक-हारकर इसे आत्मसात करना शुरू कर दिया है। स्वाधीन भाषा, स्वाधीन चिंतन, स्वाधीनता और स्वाधीन संस्कृति में जीने से धबराने वाले वाले भी अब हिंदी की जयकारी में लगे हैं। कलतलक गुलाम मानसिकता को अपनाने वाले, उसी की भाषा बोलने, समझने वाले कि भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक यहां की शिक्षा पद्धति से संस्कृत का सफाया न हो जाए। जो जातीय भाषायी अस्मिता के वैचारिक स्वराज से नाभिनाल को जुड़ा नहीं देख सक पा रहे थे जिसे काटकर ही जाति को गुलाम बनाकर विस्मृति के अंधकार में धकेला जा सकता था वही उन्होंने ही भारतीय हिंदी को लेकर आज एक विश्वास का ऐसा वातावरण निर्मित किया है जिसके बूते आज अहिंदी भाषी क्षेत्रों और विदेशों में इस सूर्योदय के सतरंगी ने असर दिखाता हिंदी को सहेजने-संभालने का खूब काम हो रहा है। हिंदी के कुछ अखबार ऐसे हैं जिनकी पाठक संख्या एक करोड़ में है। पहले अंग्रेजी के अखबारों का जो वर्चस्व था आज हिंदी ने सबको पीछे छोड़ दिया है। जो रचनाएं समाज में आ रही हैं वो हिंदी की दमदार उपस्थिति के लिए काफी है। स्त्री वर्चस्व हिंदी की मुख्यधारा में समाहित हो चुकी है। साहित्य ही नहीं इतिहास, विज्ञान, राजनीति और दर्शन की विशेषताओं को समेटे हिंदी में अच्छी किताबें बाजारवाद को लपेट लिया है। प्रकाशकों ने अंगे्रजीयत की दुकानों का शटर गिराकर हिंदी का नया काउंटर सजा लिया है। ऐसे में चिंताओं की लकीर मिट चुकी है। ऐसे में, निराश होने की अब जरूरत नहीं। हिंदी का बाजार घरों में ही नहीं आत्माओं में धंस चुका है। निज भाषा उन्नति अहै,सब भाषा को मूल। बिनु निज भाषा ज्ञान के,मिटै न हिय को शूल। बस, जिस भाषा में हमने एक संपूर्ण आंदोलन, आजादी की लड़ाई को लड़ा, जीता उस लोक जीवनी हिंदी, उसकी संस्कृति, लोक ज्ञान के बल पर हम एक दिन अंग्रेजी के इस्तेमाल के पक्ष में खड़े बुद्धिजीविक समाज की जीभ काटने के मनोनुकूल वातावरण का वरण जरूर कर लेंगे इसी सोच के साथ कि हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्ता हमारा।

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