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गंदी, गंदी, गंदी बात

sach mano to
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देश के चार स्तंभ। चारों खोखले। बेपर्द आवरण से ढ़के। बेशर्मी से लिपटे, शर्मसार। अमर्यादित हालात में गोया किसी खूबसूरत लिबास को किसी हीन, दुराग्रही मानसिकता से बेतरतीब सलीके कुतर, काट, मोड़, खंडित कर दिया हो। आवाम में, तंत्र से उठता भरोसा। न्याय की टूटती आस। कोई उम्मीद राजनेताओं के चरित्र पर सवाल उठाते या पत्रकार की कलम में सूखती स्याही से लिखी आकंठ शरीर लिप्सा की हद बरबस झकझोरती है। प्रजातंत्र का तंत्र आज गायब है और तंत्र प्रजा पर हावी। वही तंत्र जिसकी देहपृष्ठ के बीच चौथे स्तंभ का ईमान भी डोल जा रहा। पत्रकारिता की मंशा, सोच व जरूरत पर कभी मान करने वाला आज नग्न मोड़ पर हताशा, निराशा में लड़खड़ाता गिरता, पहरा देते मिल रहा। अपने नापाक चित्रित बेदर्द चेहरा व व्यथित व्यक्तित्व को दागदार करता। कालिख से मुंह धोता, पोछता संपूर्ण मीडिया धंसान, अवसान की ओर है । बात विधायिका यानी राजनीति की करूं या अंतिम मरनासन्न पत्रकारिता के बेपर्द चेहरे का। या फिर न्यायपालिका जिसके शीर्ष में बैठा देह भी वासना की जंग में लिपटा, दिखता हो। वहीं, कार्यपालिका की हालत, सीबीआइ को तोता समझते,उसे उड़ा, खत्म कर देने पर ज्यादा जोर। कैग पर बरसते वित्त मंत्री तो पटना में पशुपालन विभाग के विशेष सचिव देवेंद्र प्रसाद के ठिकानों पर पड़ते छापे, नोटों की मिलती बेशकीमती गड्डी या फिर दुर्गा शक्ति की दुर्दशा का कोई तैल चित्र सोच से बाहर, सोचने को विवश करते। नतीजा, तरूण तेजपाल की गर्दिश के सितारे के दिन को याद करना नहीं भाता या उस लाचार, बेबस महिला कर्मी की जिंदगी की बाबत बतियाने के जिसके सामने असंख्य प्रश्न मौन, बूत बने खड़े हैं। कहीं वो खुद को गोआ की यादों से बहा ले जाती, दुत्कारती मिलती है। कहीं आगे नहीं बढ़ पाने की झिझक को रोकती। सोचिए, एक औरत होने का मतलब जानना वो भी एक महिला के लिए कितनी मुश्किल जो ठिठकती भी है तो अंदर आग को समेटे। रोती भी है तो अंदर सैलाब को बहाते। सोचती है तो दिमाग कौंधती है। उसका ही बॉस उसकी शरीर के नसों में अपनी रवानी भर देता है और वो ऊफ भी कहां करती है? एक औरत शोभा चौधरी के पास जो स्वयं एक साल पहले बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून और आरोपी को कड़ी सजा की मुखालफत करती मिलती है। दु:खद यह, एक ई- मेल क्या मिली शोभा की भाषा, शब्द, परिभाषा, सोचने की शक्ति ही बदल गयी। जो कल तलक बलात्कारियों के लिए फांसी मांगती मिलती है आज तहलका ने तहलका मचाया तो अपनी ही महिला कर्मी की हिफाजत में खुद की आवाज की बोलती ही बंद कर ली और भाग खड़े हुए तेजपाल गोया जी न्यूज के दो संपादक हो जो हालिया दिनों तक मर्यादा का प्रवाह लिए स्वच्छता का पर्याय था अचानक किस आवरण में गायब, ओझल हो रहा है। तमाम सवालों ने संपादकों की भूमिका को आज पत्रकारिता जगत में कटघरे में ला खड़ा कर दिया है। खासकर, अखबारों के संस्करणों की जब से बुआई शुरू हुई है फसल काटने वाले संपादकों की नजरें कुछ खास चीजें तलाशनी लगी हैं। ऐसे में,अपने बंद आलीशान, सुसज्जित कमरे की बेशकीमती आराम कुर्सी पर लुढ़के संपादक मौलिक कम व्यवसायिक ज्यादा होते जा रहे हैं। वहीं से शुरू होती है ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता, समर्पण की कोई कीमत नहीं लगाने,चुकाने की बारी। । जो गोवा के आलीशान होटलीय सरीखे कमरों में हाथों को बहकाते, नसों में झुरझुरी पैदा कर जाते हैं।
बात देश की है, तो ईमान की भी। उस देह की भी जिसने सिर्फ भोगा है। यहां के तंत्र, उसके मिजाज, स्वरूप, व्यवस्था के हित से भी जुड़ी। आखिर तहलका की वो महिला कर्मी चाहती क्या है सिर्फ हकीकत को साफ तौर पर जानना। बातों के संकेत भी साफ है। तहलका के दफ्तर में वो अकेली नहीं है जो शारीरिक समर्पण को विवश हुई। वह जांच चाहती है ताकि वहां कार्यरत अन्य महिला सहकर्मियों को इंसाफ मिल सके। उस रात गोआ होटल में जो कुछ हुआ वो तेजपाल के लिए क्या कोई नयी बात थी। ऐसा नहीं है। तहलका के दफ्तर में अन्य महिलाकर्मी भी कहीं ना कहीं भोग्या बनी या बनती, बचती चली गयी। अगर जांच सही हो तो कई चौंकाने वाले तथ्य के पर्त खुल जाएंगे। उस दफ्तार के हालात बिल्कुल एक ही बरस पहले बनी नयी पार्टी आप जैसी है। अन्ना की सीडी बनाकर ब्लैकमैल करती, कहीं पैसों की मांग करते उसके कार्यकर्ता ही नहीं खुद कमीशन मांगती दिल्ली से चुनाव लड़ती शाजिया या फिर वहीं फर्श बाजार में कुमार विश्वास की विश्वास को ललकारती एफआइआर की कॉपी। ये मेरा सीडी बनाया कौन? मैं जनलोकपाल तो ला नहीं सका लेकिन ये केजरीवाल मेरे ही नाम पर मेरे की दम पर राजनीतिक दल बना लिया और अब जब जनता की उम्मीदों का भारी बोझ पड़ा है तो कहता है, कोई मुझे अन्ना से बात नहीं करने देता। अरे, आवाज से पैसा उठाते हो तुम, मेरे नाम पर रामलीला में करोड़ों चंदा को डकार गए तुम, मेरे मना करने के बाद भी पार्टी बना लिए तुम, गुपचुप मेरा वीडियो बनाकर मीडिया को दिया और कहते हो अन्ना के बिना मेरा जीवन बेकार। याद रखना, मेरा नाम है अन्ना। आप यानी अरविंद केजरीवाल की भ्रष्ट चेहरे की नयी कहानी। अन्ना के नाम पर करोड़ों का चंदा डकारते,गंदगी से भरी अरविंद की झाड़ू दिल्ली में रिलीज हो चुकी है। इसके नेता न सिर्फ करोड़ों के मालिक हैं। आकंठ भ्रष्ट और पैसे वो भी चेक नहीं कैश लेने में विश्वास करते हैं। खुद अरविंद दिल्ली में वोटरों को भ्रष्ट, रिश्वतखोर बनने की टिप्स, शिक्षा देते फिर रहे। पैसा हम सबसे लेंगे…। मोदी कहते हैं कांग्रेस के पाप की उपज है सपा-बसपा। माना, देश में धमाकों के लिए इंडियन मुजाहिदीन को धन दे रहा पाकिस्तान बावजूद विदेश मंत्री पड़ोसी को संदेह का लाभ दे रहे कि पाक को माफ कर देगा भारत। मगर सवाल यही, इस देश में लोक सभा चुनाव आते ही 200 नयी राजनीतिक पार्टियां कहां की पैदाइश है? बाबाओं, बिल्डर्स से लेकर प्रॉपर्टी डीलर्स व सेवानिवृत नौकरशाह को इतना पैसा कहां से आ रहा जो चुनाव आयोग के दरवाजे के अंदर पंजीकृत हो रहे। हालात यही, अन्ना के घर के दरवाजे खुले होने पर भी केजरीवाल को वह हमेशा बंद दिखता, मिल रहा है। कोई उन्हें वहां जाने से रोकता, अन्ना से बतियाने तक नहीं देता। पाकिस्तान के दस टीवी चैनलों समेत भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगने के बीच भले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को पाकिस्तान के कारण नींद नहीं आती हो पर भारतीय महिलाओं को मोदी से जवाब नहीं मिलने उस जासूसी पर ऐतराज है जिसके साहेब की तलाश में अमित शाह की बोलती नहीं निकलती। तुष्टि, संतुष्टी के बीच, मुजफ्फरपुर दंगों में सिर्फ मुस्लिमों की सुध लेने की बात सुप्रीम कोर्ट को भी हजम नहीं। गोया, सचिन को भारत रत्न देने पर भाजपा को अटल का बुखार चढ़ गया हो। या मर्यादा के नाम पर श्रीमर्यादा पुरुषोतम भगवान रामलीला समिति लखनऊ की याचिका कहीं से आ टपकी हो और यूपी के लोग लीला चाहे राम की रामलीला नहीं देख पाने का मलाल लिए मुंबई में अमिताभ बच्चन व लता मंगेशकर के सहयोग से बन रहे बाल ठाकरे स्मारक को टकटकी निहार रहे हों। मानो, मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी विधायकों का सार्वजनिक सम्मान समारोह करती भाजपा नेपाल संविधान सभा में हारी माओवादियों को बुला लिया हो। तय है, सम्मान से सांप्रदायिक अलगाव तो बढ़ेगा ही। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों की काफी तादाद और वहां ये सांप्रदायिक वैमनस्य तहस-नहस करेंगे,समाज के ताने-बाने बिगाड़, तोड़ देंगे और पतंजलि योग पीठ पर फंसते रामदेव हो या भाजपा बेशर्मी की थोड़ी सी पानी में डूबने से भी ज्यादा खतरनाक देश में बनते बांग्लादेशी हालात के बीच कमल को कीचड़ से निकाल लेने की तमाम हथकंडे अपनाएगी। बस शर्त यही, अभिनेत्री ऐश्वर्या बच्चन भी ससुराल से अलग हो जाए। हालात यही, उसकी भी अपनी सास जया बच्चन से नहीं बनती। जैसे, राजनीति में साहित्य की घुसपैठ हो गयी हो और कपिल सिब्बल मोदी के नाम कोई कविता गुनगुना रहे हों…ग्लास पानी का आधा भरा है बाकी में हवा भरा है।

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