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भयावह हो गई है
अब गांव की रात
टूटते, बिखरते बांस की जर्जर कायो के बीच
दौड़ती, सरसराती चली आती है सर्द हवा
झकझोड़ती, भिंगो देती है तन-बदन
धुंध का दुस्साहस
वो
घेर लेती है बलात
झोपडिय़ों को बिना आलंगन
बिन बताए/अकारण।
दूर पर कहीं भौंकता कुत्ता
गीदड़ों पर टूटता/लड़ता/पछाड़ता
कुत्तों की भौं-भौं…
या फिर
कहीं दूर मस्जिद से आती
अजान
बताती रात के सन्नाटे का वक्त
ठहरता/चलता समय।
वहीं कहीं आसपास से
झाल, ढ़ोलक की थाप पर सुनाई पड़ती
राम नाम…वो कीर्तन का रस…
आह…कितना मधुर
सब निस्तब्ध…/सब निस्तब्ध…।
गांव
बहुत सुहाना/ सजता है दिन में
थोड़ी सी भी बादलों, पेड़ों
को चीड़कर कहीं दूर से भी निकलेगी गर धूप
ओढ़ लेगी/ ढक सी लेगी
उसकी फीकी-फीकी सी गरमी
चटक आती है झोपडिय़ों में
रात भर बोरसी के लिए ढूढ़ता फिरता लकड़ी
वो आम के पेड़ों के छोटे-छोटे डंटल
वो लत्तियों से लपेटे, बंधे सूखे जारन के बंडल
नीचे फर्श को ओढ़े/वहीं पड़े सूखे पत्तों को टोकरियों में समेटे
घर लौटती महिलाएं/बच्चे
उसी बोरसी की आग
तन, मन से जुड़ा बैठा हूं…
बस
इंतजार है…
रात के लौटने का।
उसी आग को बिस्तर तक धकेल
उसे उकसाने की जिद लिए
दूर दिये को भी बुझा
काम पर लगा दिया है अभी-अभी।
अब
इसी शेष राख
वो लाल सूर्ख लकडिय़ों के चंद गरमाते टुकड़ों संग
देह को समेटे
कट जाएगी झोपड़ी में रात
जो बहुत भयावह…/धुंध से भरपूर…/बस सर्द है…
यही गांव है…।
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